डोंगरगढ़ : माँ बम्लेश्वरी का इतिहास | Maa Bamleshwari Mandir, Dongargarh

 डोंगरगढ़ : माँ बम्लेश्वरी का इतिहास


नागपुर से बिलासुपर के बीच पर्वत श्रृंखला में फैल पर्वत के मध्य सर्वोच्च शिखर पर माँ बम्लेश्वरी देवी का विशाल मंदिर स्थित है। डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर स्थित शक्तिरूपा मां बम्लेश्वरी देवी का विख्यात मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। मान्यता है कि मां बम्लेश्वरी देवी से भक्तों द्वारा मांगी गई मनोकामना पूर्ण होती है। बड़ी बम्लेश्वरी के समतल पर स्थित मंदिर छोटी बम्लेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध है।  कहा जाता है कि यह मां बमलेश्वरी की छोटी बहन है। इस पर्वत श्रृंखला की प्राकृतिक सुंदरता मनमोहक है। मंदिर चारों ओर हरे भरे वनों पहाडिय़ों, छोटे-बड़े तालाबों से घिरा हुआ है। पहाड़ी के नीचे कामकंदला तालाब है। मां बम्लेश्वरी के मंदिर में प्रति वर्ष चैत्र नवरात्र एवं क्वांर नवरात्र के समय दो बार भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। जिसमें लाखों की संख्या में भक्त एवं दर्शनार्थी पैदल एवं अन्य माध्यमों से पहुंचते हैं। डोंगरगढ़ स्थित मां बम्लेश्वरी मंदिर पर जाने के लिए सीढिय़ों के अलावा रोपवे की सुविधा भी है। माँ बम्लेश्वरी देवी का मंदिर 1610 फीट ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। देश के विभिन्न राज्यों एवं विदेशों से भी भक्त पर्वत पर बने लगभग 1000 सीढिय़ों की कठिन चढ़ाई कर माता के दर्शन के लिए आते है। इसके अलावा रोपेवे एक अतिरिक्त आकर्षण का केन्द्र है और छत्तीसगढ़ में एकमात्र यात्री रोपेवे है। प्राचीन काल से ही डोंगरगढ़ दर्शनार्थियों की आध्यात्मिक धार्मिक भावनाओं का केन्द्र है। माँ बम्लेश्वरी को बमलाई दाई या दाई बमलाई, माँ बगलामुखी के नाम से भी जाना जाता है। 

डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ राज्य के राजनांदगांव जिले का एक शहर और नगर पालिका है, जो माँ बम्लेश्वरी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। डोंगरगढ़ को धर्मनगरी के नाम से भी जाना जाता है। डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख तीर्थ स्थल हैं। डोंगरगढ़ राजधानी रायपुर से 106 किलोमीटर एवं जिला मुख्यालय राजनांदगांव से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है तथा मुंबई-हावड़ा रेल मार्ग के अंतर्गत आता है। हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर डोंगरगढ़ रेलवे जंक्शन है। डोंगर का अर्थ पहाड़ और गढ़ का अर्थ दुर्ग होता है, अर्थात डोंगरगढ़ का अर्थ पहाड़ पर दुर्ग है। डोंगरगढ़ को प्राचीन काल में कामाख्या नगरी, कामावती नगर एवं डुंगराज्य नगर के नाम से जाना जाता था।

 डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर स्थित मां बम्लेश्वरी देवी


छोटी बम्लेश्वरी माता


आवागमन सुविधा-

डोंगरगढ़ नगर मुम्बई-कलकत्ता (व्हाया-नागपुर) के मध्य रेल्वे लाईन एवं हवाई अड्डा पर महाराष्ट्र की उप राजधानी नागपुर (आरेंज सीटी) से 200 किलो मीटर दूर एवं छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रेल्वे लाईन एवं हवाई अड्डे से 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। डोंगरगढ़ पहुंचने का सुगम माध्यम रेल्वे मार्ग है। कलकत्ता- मुम्बई नेशनल हाईवे मार्ग क्रमांक 6 पर स्थित पश्चिम दिशा की ओर से ग्राम चिचोला से 17 किलोमीटर एवं पूर्व दिशा की ओर ग्राम तुमड़ीबोड़ से 22 किलोमीटर की दूरी पर डोंगरगढ़ नगर स्थित है।  

माँ बम्लेश्वरी मंदिर स्थापना से संबंधित पौराणिक कथाएं-

माँ बम्लेश्वरी मंदिर स्थापना से जुड़ी 2200 वर्ष पूर्व प्राचीन कथा अनुसार कामख्या नगर में राजा वीरसेन का शासन था। राजा वीरसेन की कोई संतान नहीं होने से उन्हें अपने उत्तराधिकारी की चिंता सताने लगी थी। राजा वीरसेन ने संतान प्राप्ति के लिए मां भगवती दुर्गा और शिवजी की आराधना शुरू की। एक साल के बाद मां भगवती दुर्गा और शिवजी की कृपा से राजा वीरसेन को पुत्र की प्राप्ति हुई। राजा ने अपने पुत्र का नाम मदनसेन रखा। मां भगवती दुर्गा और भगवान शिवजी की कृपा को व्यक्त करने के लिए राजा वीरसेन ने डोंगरगढ़ पहाड़ी पर मंदिर बनवाया, जिसे माँ बम्लेश्वरी मंदिर कहा जाता है। मदनसेन भी अपने पिता वीरसेन की तरह एक प्रजा सेवक शासक थे। राजा मदनसेन के बाद उनके पुत्र कामसेन राजा बने। कामसेन के नाम पर कामख्या नगरी का नाम कामावती रखा गया।

कामकंदला व माधवानल की प्रेम कथा- 

आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जब उज्जैन में राजा विक्रमादित्य का राज्य था, तब डोंगरगढ़ नगर कामावती नगर के नाम से जाना जाता था। उस समय राजा वीरसेन के शासन के बाद मदनसेन के पुत्र कामसेन कामावती राज्य के राजा थे। कामावती नगर अपने संगीत और नृत्य कला के लिए प्रसिद्ध था। प्राचीन इतिहास के अनुसार राजा कामसेन के दरबार में अति रूपवती एवं नृत्यकला में प्रवीण नृत्यांगना कामकंदला व अलौकिक संगीतग्य व मधुर गायक माधवानल कामावती राज्य की शोभा थे। माधवानल के संगीत में विशेषज्ञता का अंदाजा इस बात से लगया जा सकता है कि एक बार राजा के दरबार में कामकंदला के नृत्य का आयोजन हुआ, लेकिन ताल व सुर बिगडऩे से माधवानल ने कामकंदला के पैर की एक पायल में नग न होने व मृदंग बजाने वाले का एक अंगूठा नकली यानी मोम का होना जैसी गलती निकाली। इससे राजा कामसेन उनकी संगीत के प्रति विशेषज्ञता से बहुत प्रभावित हुए। कामकंदला और माधवानल के मध्य अति प्रेम था। इन दोनों की ख्याति दूर-दूर तक विख्यात थी। एक बार कामावती राज्य के वार्षिक उत्सव में माधवानल और कामकंदला दोनों ने नृत्य व गायन प्रस्तुत किया। माधवानल के संगीत व गायन से अति प्रसन्न होकर राजा कामसेन ने माधवानल को अपने आभूषण भेंट कर दिए। नृत्य के दौरान कामकंदला माधवानल के स्थान पर आ बैठे भौरें को स्थन कंचुकी द्वारा श्वास छोड़ कर हवा में उड़ा दिया। जिसे दरबार में बैठे अन्य दरबारी समझ न सके। कामकंदला के इस अलौकिक नृत्यकला से मुग्ध होकर राजा कामसेन द्वारा दिए आभूषणों को माधवानल ने कामकंदला को भरे राज दरबार में ही समर्पित कर दिया। राजा कामसेन ने इसे अपना व राज दरबार का अपमान मानकर माधवानल को राज्य से निष्काषित कर दिया। लेकिन माधवनल राज्य से बाहर न जाकर डोंगरगढ़ की पहाडिय़ों की एक गुफा में छुपे रहे। इस घटना से कामकन्दला और माधवनल के बीच प्रेम और बढ़ गया। दोनों छिपकर मिलने लगे। वहीं दूसरी ओर राजा कामसेन का पुत्र मदनसेन भी कामकन्दला से प्रेम करता था। भय के कारण कामकंदला, मदनसेन से केवल प्रेम का नाटक कर रही थी। लेकिन प्रेम का झूठा नाटक ज्यादा दिनों तक छुप न सका और सत्य का पता चलने पर राजा कामसेन के पुत्र मदनसेन ने कामकंदला पर राजद्रोह का आरोप लगाकर बंदी बना लिया। 

माधवानल इस अपमान से दुखी होकर उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के राज दरबार में पहुंचकर पहुंचे। वहां माधवानल ने राजा विक्रमादित्य को अपने संगीत व गायन कला से प्रसन्न कर दिया। अति प्रसन्न होकर राजा विक्रमादित्य ने माधवानल से मनचाहा वर मांगने कहा। जिस पर माधवानल ने कामावती राज्य में नृत्यागना कामकंदला को प्रदान करने की इच्छा प्रगट की। राजा विक्रमादित्य ने माधवानल को दिये अपने वचन को निभाने के लिए कामावती नगरी पर आक्रमण करना पड़ा। उज्जैन राज्य और कामावती राज्य के बीच भंयकर युद्ध हुआ। युद्ध में विजय न प्राप्त होते देखकर राजा विक्रमादित्य ने अपनी अदृश्य शक्ति अगिया बैताल का प्रयोग कर राजा कामसेन के पुत्र मदनसेन का सिर काट दिया। तब राजा कामसेन ने अपने राज्य की अधिधात्री देवी मां भगवती देवी का आह्वान किया। अपने प्रिय भक्त के आह्वान पर मां भगवती युद्ध स्थल पर प्रगट हो राजा विक्रमादित्य की सेना का संहार करने लगी। यह देखकर राजा विक्रमादित्य ने अपने इष्ट देव भगवान शिव का आह्वान किया। राजा विक्रमादित्य के आह्वान पर शिवजी तत्काल रणभूमि में प्रगट हो गए। रणभूमि में प्रगट होते ही शिवजी की नजर मां भगवती पर पड़ी त्यों ही भगवान शिव अपने वाहन नंदी से उतरकर मां भगवती के समक्ष आ गये और कहा कि हे मां जिनके पुत्र सामर्थवान हो उस माता को रणभूमि में आने का कष्ट उठाने की क्या जरूरत है। ऐसा कहकर भगवान शिव ने मां भगवती के रौद्र रूप को शांत कर राजा विक्रमादित्य एवं राजा कामसेन के मध्य संधि कराकर राजा कामसेन के पुत्र मदनसेन को जीवनदान प्रदान कर किया और मां भगवती के साथ शिवजी अपने लोक को विदा हुए। 

युद्ध की समाप्ति के बाद राजा विक्रमादित्य ने कामकंदला और माधवानल के प्रेम की परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने कामकंदला को युद्ध में माधवानल के मारे जाने की झूठी सूचना पहुंचा दी। कामकंदला इस सूचना से बहुत आहत हो गई और पहाड़ी के नीचे स्थित तालाब में डूब कर अपने प्राण दे दिए। इस तालाब को आज कामकंदला तालाब के नाम से जाना जाता है। कामकंदला की मृत्यु की सूचना माधवानल को मिलने पर उन्होंने भी अपने प्राण त्याग दिए। कामकंदला और माधवानल के मृत्यु होने पर राजा विक्रमादित्य को अपने इस कृत्य पर बहुत पश्चाताप हुआ। उन्होंने पहाड़ी की ऊंची चोटी पर माँ भगवती का आह्वान किया। माँ भगवती के प्रकट नहीं होने पर उन्होंने अपनी तलवार से अपने सिर धड़ से अलग करने का प्रयास किया। राजा विक्रयादित्य की भक्त से प्रसन्न होकर माँ भगवती प्रकट हुई और राजा विक्रमादित्य को अपने प्राण त्यागने से रोका। माँ भगवती से राजा विक्रयादित्य ने कामकंदला और माधवानल को पुर्नजीवित करने का आग्रह किया। माँ भगवती के आशीर्वाद से कामकंदला और माधवानल को पुन: जीवनदान मिला। राजा विक्रमादित्य ने माँ भगवती से यहां विराजमान होकर भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने का आग्रह किया और तब से माँ भगवती डोंगरगढ़ में माँ बम्लेश्वरी देवी के रूप में विराजमान होकर भक्तों की मनोकामना पूर्ण कर रही है। राजा विक्रमादित्य व राजा कामसेन के मध्य हुए इस युद्ध का विस्तृत वर्णन लक्ष्मीवेकटेंश्वर स्टीम प्रेस कल्याण-मुंबई द्वारा प्रकाशित 'माधवानल कामकंधला नामक पुस्तक में वर्णित है। 

धरती पर हो रहे परिर्वतन की चपेट में आकर कामावती राज्य तहस-नहस हो रहा था एवं उसके स्थान पर चारों ओर पर्वत श्रृंखला से घिरे पर्वत के मध्य ताल कटोरे से सदृश्य स्थल स्वरूप के मध्य सर्वोच्च पर्वत के सर्वोच्च शिखर पर एवं पर्वत की तलहटी पर कामावती राज्य की अधिधात्री देवी मां बम्लेश्वरी देवी की प्रतिमा स्वविराजित प्रगट हो गई।  धरती का विनाशकारी परिर्वतन मां भगवती की ऊपर मंदिर एवं नीचे मंदिर की प्रतिमाओं को छू तक नहीं पाया। जिसने समस्त कामावती राज्य को अपने काल के आगोश में समा लिया था। कामावती राज्य के अवशेष पर्वत के चारों ओर यत्र-तत्र बिखरे हुये दिखाई देते हैं।

राजा घासीदास की माँ बम्लेश्वरी देवी भक्ति-

माँ बम्लेश्वरी देवी मंदिर का प्रमाण अंग्रेजों के गजेटियर से स्वामी कृष्णारंजन कवि ऊर्फ भागवताचार्य स्वामी श्रद्धानंद राजिम द्वारा की गई खोज के अनुसार 17वीं शताब्दी में राजा घासीदास डोंगरगढ़ के राजा थे। राजा घासीदास ने अंग्रेजों द्वारा छत्तीसगढ़ से राजस्व कर के रूप में वसूल किए गए खजाने को ग्राम बाघनदी के पास लूट लिया। अंग्रेजों की बन्धुकधारी सेना एवं खैरागढ़ राज्य की सेना तथा नादगांव राज्य (अब राजनांदगांव)की सेना ने संयुक्त रूप से डोंगरगढ़ पर हमला कर युद्ध में राजा घासीदास को पराजित कर बंदी बना दिया और नागपुर के राजा घोसले के दरबार में प्रस्तुत किया। यहां अंग्रेज गर्वनर रिचर्ड वेक्सिन के आदेश पर राजा घासीदास को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। राजा घासीदास की अंतिम इच्छा के अनुसार उन्हें ऊपर पहाड़ी स्थित मां बम्लेश्वरी देवी के मंदिर डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी की प्रतिमा के समक्ष तलवार की वार से गर्दन काटकर मृत्युदण्ड दिया गया। राजा घासीदास मां भगवती के अनन्य भक्त थे। उनका सर मां भगवती के अलावा किसी के समक्ष नहीं झुकता था। इससे यह स्पष्ट होता है कि सन 1700 पूर्व से मां बम्लेश्वरी देवी का मंदिर विद्यमान है। राजा घासीदास की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने डोंगरगढ़ राज्य को विभक्त कर खैरागढ़ राज्य व नादगांव राज्य (अब राजनांदगांव) के राजाओं को इनाम में दे दिया। जिसके तहत डोंगरगढ़ राज्य खैरागढ़ राज्य के अंतर्गत शामिल कर लिया गया। खैरागढ़ राज्य के राजा टिकेत राय द्वारा मां बम्लेश्वरी देवी मंदिर का प्रबंध अपने हाथों में लेकर सतत जनभावनाओं के अनुरूप मंदिर का विकास किया। खैरागढ़ रियासत में वास्तुकला की दृष्टि से केवल दो ही प्राचीन मंदिरों का वर्णन मिलता है। जिसमें खैरागढ़ का प्राचीन रूखड़ स्वामी मंदिर एवं दूसरा डोंगरगढ़ का प्राची मंदिर ऊपर बमलाई मंदिर व नीचे बमलाई मंदिर शामिल है। इन मंदिरों का विकास विस्तार एवं संचालन जनभावनाओं के अनुरूप के अनुरूप खैरागढ़ रियासत द्वारा किया जाता था। 


इतिहास में माँ बम्लेश्वरी मंदिर का वर्णन-

रायुपर के कमिश्नरी के कमिश्नर रूसी स्मित ने जानकारी देते हुए बताया है कि 18वीं सदी के प्रारंभ में डोंगरगढ़ परिक्षेत्र में 6 मंदिर स्थापित थे। इनका रख-रखाव न होने के कारण इन मंदिरों की मूर्तियों को नागपुर के घोसले शासक एवं उनके सरदारों ने कलात्मक आकृति उभरी शीलाखंडों को राष्ट्रीय राज्य मार्ग 6 पर स्थित पुलियों के निर्माण में लगा दिया। जिन पुलियों पर इन मंदिरों की पत्थर लगे है। उनमें प्रमुख पुतली पुलिया, मरकाटोला पुलिया, चिचोला नाला पुलिया, कटवा पुलिया, पाटेकोहरा पुलिया शामिल है। इसी तरह सन 1858 में मेजर हेरिन सेक्सपियर ने बाईल्ड स्पाट ऑफ इंडिया नामक पुस्तक में मॉँ बम्लेश्वरी मंदिर का उल्लेख करते हुये लिखा है कि माँ बम्लेश्वरी देवी को माँ बगलामुखी देवी के नाम से जाना जाता था। ऊपर पहाड़ी की प्रतिमा की अनुकृति नीचे पर्वत की तलहटी पर स्वविराजित थी। जो वर्तमान में नीचे बम्लेश्वरी मंदिर के नाम से विख्यात है। इस भव्य मंदिर का निर्माण खैरागढ़ रियासत के राजा कमलनारायण सिंह के शासनकाल में कराया गया था। राजा कमलनारायण सिंह माँ बम्लेश्वरी के अनन्य भक्त थे। उन्होंने माँ बम्लेश्वरी देवी की भक्ति में जस गीतों की रचना की थी। जो आज भी इस अचंल में प्रचलित है। मिस्टर बेंगलर ने सन् 1872 में इस बात की पुष्टि की है कि डोंगरगढ़ के आस-पास के इलाकों में अनेकों मंदिर के अवशेष विद्यमान है। मिस्टर बेंगलर के अनुसार इन अवशेषों से ऐसा ज्ञात होता है कि यह स्थान प्राचीन कामाख्या पीठ या वर्तमान में डोंगरगढ़ के उत्तर पश्चिम की ओर बोरतलाय क्षेत्र के जंगलों में ग्राम खमपुरा एवं जमनाधार में 52 मंदिरों के अवशेषों के साथ लज्जा गौरी की मूर्ति प्राप्त हुई थी। उसी प्रकार डोंगरगढ़ के उत्तर की ओर ग्राम देवकड़ा के पास निगोनाला में मी मंदिरों के अवशेष पाये गये। अंग्रेज यात्री मिस्टर लेकि ने सन् 1890 में लिखा है कि डोंगरगढ़ में प्राचीन किला और नगर था। वह नष्ट हो गये किन्तु आज भी बम्लेश्वरी पर्वत पर प्राचीन किले के अवशेष यत्र-तत्र पड़े है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचीनकाल से ही यह क्षेत्र सिद्ध पीठ रहा है। 


माँ बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट समिति डोंगरगढ़ -

रियासतों के विलनीकरण के समय खैरागढ़ रियासत के तात्कालीन राजा मेजर राजा बिरेन्द्र बाहदुर सिंह द्वारा ऊपर माँ बम्लेश्वरी व नीचे माँ बम्लेश्वरी मंदिर का प्रबंध स्वर्गीय श्री सेठ केदारमल जी अग्रवाल की अध्यक्षता में नगर के प्रबुद्ध नागरिकों की कमेटी बनाकर सौंप दिया। तब से नगर के गणमान्य नागरिकों द्वारा जनभावनाओं के अनुरूप एवं समय की आवश्यकता के अनुसार सतत् विकास प्रक्रिया जारी है। मां बम्लेश्वरी देवी मंदिर में बढ़ती श्रद्धालुओं की भीड़ को देखते हुये, मंदिर कमेटी ने नगर के जन-जन को मंदिर कमेटी से जोडऩे के लिए सन् 1976 में सार्वजनिक ट्रस्ट का स्वरूप प्रदान किया। माँ बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट समिति के पहले अध्यक्ष स्वर्गीय श्री मानिलक लाल तापडिय़ा थे। तब से लेकर अब तक मंदिर ट्रस्ट समिति द्वारा लगातार अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को अदा करते हुये मां बम्लेश्वरी देवी मंदिर के चहुंमुखी विकास एवं दर्शनार्थियों की सुविधा हेतु सतत् प्रयास किया जा रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप यहां प्रतिदिन एवं चैत्र व क्वांर नवरात्र पर्व के दौरान बड़ी संख्या में भक्तों का तांता माँ का आर्शीवाद पाने के लिए लगा रहता है। अनेक भक्तजनों द्वारा सार्वजनिक व व्यक्तिगत रूप से माँ बम्लेश्वरी देवी के नियमित दर्शन पूजन हेतु विभिन्न प्रदेशों व घरों, नगरों में माँ बम्लेश्वरी देवी माता का मंदिर स्थापित किया है। जो मां बम्लेश्वरी देवी के प्रति जनों की आगाध श्रद्धा भक्ति व विश्वास का प्रतीक है। भक्तजन अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु माँ के मंदिर में नारियल बंधन कराकर मनोकामना पूर्ण होने पर ज्योति कलश प्रज्जवलित कराते है। यह मान्यता है कि नारियल बंधन के बाद भक्त की सभी मनोकामनाएं माँ बम्लेश्वरी देवी के आशीर्वाद से पूर्ण होती है। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि माँ बम्लेश्वरी देवी के दरबार में ज्योति कलशों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है।




माँ बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट समिति डोंगरगढ़ द्वारा नीचे मंदिर का भव्य निर्माण कराया गया है। मंदिर का भव्य निर्माण नई दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर के तर्ज पर गुजरात, राजस्थान के विश्व प्रसिद्ध कलाकारों द्वारा कराया गया है। मंदिर में कुल 8 प्रवेश द्वार, 14 फीट 7 इंच की ऊंचाई के 44 पील्लर, मंदिर की शिखर सहित कुल ऊंचाई 95 फीट 3 इंच, चौड़ाई 70 फीट एवं लम्बाई 208 फीट है। मंदिर के गर्भ गृह 15 फीट 9 इंच लम्बाई व 15 फीट 9 इंच चौड़ाई है। मंदिर के रंग मंडप लम्बाई 41 फीट एवं चौड़ाई 41 फीट है। मंदिर का बहारी भाग बंशीपहाड़पुर राजस्थान के पत्थरों से एवं मंदिर के भीतरी हिस्से व गर्भ गृह में अम्बाजी के मार्बल से सजाया गया है। समिति द्वारा छिरपानी धर्मशाला, ऊपर मंदिर धर्मशाला, नीचे मंदिर धर्मशाला के अलावा नगर में अनेक धर्मशालाएं, लॉज, होटल की सुविधा उपलब्ध है। इसके अलावा ट्रस्ट द्वारा भोजनालय व रेस्टोरेंटर सेवा ऊपर पहाड़ी मंदिर एवं छिरपानी परिसर में उपलब्ध है। 

छोटी बम्लेश्वरी माता मंदिर





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