शहीद वीर नारायण सिंह
भारत को अंग्रेजों से आजादी हमारे वीर स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष और बलिदानों की वहज से मिली है। वही बात करें छत्तीसगढ़ी की तो देश की आजादी के लिए संघर्ष और बलिदान करने में छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी किसी से पीछे नहीं रहे। इनमें सर्वप्रथम नाम आता है शहीद वीर नारायण सिंह का। छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद सेनानी वीर नारायण सिंह का जन्म 1795 में सोनाखान के जमींदार परिवार में हुआ था। जो वर्तमान में बलौदाबाजार जिले के अंतर्गत आता है। वे बिंझवार आदिवासी समुदाय से ताल्लुख रखते थे। देशभक्ति और निडरता उन्हें अपने पिता रामसाय से विरासत में मिली थी।
कहां जाता है कि नारायण सिंह के पास एक स्वामीभक्त घोड़ा था। वे अपने घोड़े पर सवार होकर अपने रियासत का भ्रमण किया करते थे। भ्रमण के दौरान एक बार उन्हें पता चला कि सोनाखान क्षेत्र में एक नरभक्षी शेर आतंक मचा रहा है। जिसके कारण प्रजा भयभीत है। प्रजा का भय दूर करने वह तुरंत तलवार लेकर जंगल में जाकर नरभक्षी शेर को ढेर कर दिया। उनकी इस बहादुरी के कारण उन्हें वीर की उपाधि दी गई और वे वीर नारायण सिंह के नाम से प्रसिद्ध हो गये। पिता की मृत्यु के बाद 1830 में वे सोनाखान के जमींदार बने। स्वभाव से हिम्मती, परोपकारी और न्यायप्रिय होने के कारण वीर नारायण सिंह जल्दी ही लोगों के जननायक बन गये।
जब पूरे भारत पर अंग्रेजो का एकछत्र राज्य हो गया तो अंग्रेजो ने किसानों पर लगान का बोझ डाल दिया। जिसके विरोध में सन 1854 में उन्होंने विद्रोह किया। जिसके कारण रायपुर के डिप्टी कमीश्नर इलियट से उनकी दुश्मनी हो गयी। फिर 1856 में छत्तीसगढ़ में भीषण सूखा आ जाने के कारण लोग दाने-दाने को तरसने लगे। लेकिन जमाखोर व्यापारियों के गोदाम अनाज से भरे पड़े थे। उन्हीं में से एक कसडोल के व्यापारी माखन सेे वीर नारायण सिहं ने गरीबों के लिए अनाज का भण्डार खोलने प्रार्थना की। लेकिन व्यापारी माखन ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया। फिर क्या था वीर नारायण सिंह ने उसके गोदाम के अनाज को निकालकर गरीबो में बटवा दिया। व्यापारी माखन ने इसकी शिकायत रायपुर के डिप्टी कमीश्नर इलियट से की। और इलियट ने उन्हें 24 अक्टूबर 1856 में संबलपुर से गिरफ्तार कर रायपुर जेल में भेज दिया।
1857 में जब प्रथम स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई पूरे देश में तेज हुई तो छत्तीसगढ़ में भी इसकी आग तेजी से फैली। यहां के लोगों ने जेल में बंद वीर नारायण सिंह को ही अपना नेता मान लिया और इस लड़ाई में शामिल हो गये। उन्होंने अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचारों के खिलाफ बगावत करने की ठान ली। नाना साहब द्वारा इस क्रांति की सूचना रोटी और कमल के माध्यम से देश भर की सैनिक छावनियों में भेजी जा रही थी। यह सूचना जब रायपुर पहुँची, तो कुछ देशभक्त जेलकर्मियों ने योजना बनाकर वीर नारायण सिंह को कारागार से मुक्त करा लिया। जेल से मुक्त होकर वीर नारायण सिंह ने 500 सैनिकों की एक सेना बनाई और 20 अगस्त 1857 को सोनाखान में आजादी का बिगुल बजा दिया। इलियट ने स्मिथ नामक सेनापति को इस विद्रोह को दबाने के लिए के लिए भेजा। वीर नारायण सिंह ने अंग्रेजों का डट कर मुकाबला किया। लेकिन सोनाखान के आसपास के अनेक जमींदार अंग्रेजों से मिल जाने के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा। किन्तु वीर नारायण सिंह में जब तक शक्ति और सामर्थ्य रहा वे अंग्रेजों से लड़ते रहेे। लेकिन एक बार फिर सोनाखान के आसपास के जमींदारों की गद्दारी से वीर नारायण सिंह पकड़े गये और उन पर राजद्रोह का आरोप लगाते हुए 10 दिसंबर 1857 को अंग्रेजों ने रायपुर में उन्हें सरेआम फांसी दे दी। मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने वाले अमर शहीद वीर नारायण सिंह को जहां पर फांसी दी गई थी आज वह रायपुर में जय स्तंभ चौक के नाम से जाना जाता है।
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